चार-तीन कुछ छंद पढ़कर, हाय, भटक गया मैं भोला भाला, गंतव्य समर्पित कर चुका हूँ, बन गया हूँ मतवाला। विचलित मन है मेरा अभिशाप, तन और धन का भी बोध नहीं, रीत जगत की भूल चुका हूँ, शरण तू ही है, मेरी मधुशाला।। अलग अलग पथ बतलाये सबने, पर खाली रहा मन का प्याला, भूला-भिसरा मैं थक-हार के, जा पंहुचा अपनी मधुशाला। अवश्य, मदिरा के प्यालों का जी भरकर सेवन किया है मैंने, परन्तु हर बार मेरे प्रश्नों का उत्तर देने से रही कतराती मधुशाला।। |
'और पिए जा, और पिए जा', उकसाती रही मन-मोहिनी साकीबाला, तोह फिर उसके मादक कर कमलों द्वारा क्यूँ न मैं चखता हाला? षण भर प्यास शांत हुई जो ज्ञान हुआ परिस्थिति की विषमता का, अब हार मानकर छुपा हुआ हूँ घूंघट में मैं तेरे मधुबाला।। मदिरालय में कब से बैठा हूँ, सखी तोह प्यार जता कर चली गयी, असमंजस है - 'और, और' की रटन लगाऊं या छोड़ चलूँ मैं मधुशाला। स्वयं विवश हूँ, मंत्र-मुग्ध हूँ, अब तोह बस कर इतराना, साकीबाला, वश में तेरे सब लुटा चुका हूँ, रहा न कुछ अब देने वाला।। |
दूर खड़ी एक विचित्र मृगतृष्णा सी लगी हमेशा मुझे मधुशाला, 'आ आगे' कहकर हर बार होंठों से हटा लेती वह मेरा प्याला। निराशा के इस घनघोर तम में वोह भूला विश्वास कैसे ढूँढू मैं, और भी हैं पीनेवाले, उनका मनोरंजन करती है अब मेरी मधुबाला।। समझ में आया है अब जाकर कभी नहीं था मैं पीनेवाला, कुछ पल दोष तेरे सर मढ़कर बूझ गया मैं गलती अपनी, साकीबाला। पर हिम्मत रही न कि बढूँ मैं आगे, न साहस है कि फिर जाऊं पीछे, अंतिम जाम है, होंठ से अपने अंकित कर खिसका दे विष का प्याला।। |
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