Tuesday, January 29, 2013

Catch-22

Humour me, you old grump. What do you live for these days?
Her.

Hold on. What about your dreams? More importantly, your desires?
Heh.

You fucking slacker. You want her life, no? You’re drowning in it.
So it seems.

But she’ll hate you for it. I wouldn’t even want to look at you.
Not more than I hate myself.

Doesn't that drive you insane? What’s in it for you anyway?
The thrill. Mostly the tragedy.

I’d say you’re a lost cause. But then again. Do you even love her?
That is the predicament.

Monday, January 28, 2013

Chasing the Phantom

You never identify yourself with the shadow cast by your body, or with its reflection, or with the body you see in a dream or in your imagination. Therefore, you should not identify yourself with this living body, either.
— ADI SHANKARA (A.D. 788-820), Vivekachudamani

Saturday, January 19, 2013

Ugliness in Death

Where do you desires go when they die?
When they are all mottled up and shrivelled,
Mutilated beyond redemption;
When we have confused them with our needs
And made them vital to our survival?

Do they hide in the recesses of our dreams,
In the yellowed pages of a long forgotten journal,
To be the waning life force of hope and ambition,
Only to make an appearance on a sunny day?
Or do they become the remnants of an emotional baggage,
Abandoned in the face of tears, dejection, or reason,
That keeps dragging us down into the depths of despair?

Does hope gasp for breathing space
As the graveyard of longings comes to be littered
With the tombstones of our failures?
If they had ever found refuge in our benevolent minds,
Who nourished them like their own,
Do we wish on a false star by hoping to stay the same?

I suppose one could hide in a corner,
Like a moody dog who jealously guards his bone,
Casting a suspicious eye on his own reflection,
'Til the effort of playing sentry to our hearts
Wears us thin and we scoop out the last bit of dignity
Into the cup of surrender,
To be served at a moment's notice
To the demons of self-pity.

I suppose one could learn to forget,
Try to heal a damaged self,
Even beguiling it into knowing respect...

I suppose one could keep waiting on that miracle.

Thursday, January 17, 2013

Saki

चार-तीन कुछ छंद पढ़कर, हाय, भटक गया मैं भोला भाला,
गंतव्य समर्पित कर चुका हूँ, बन गया हूँ मतवाला।
विचलित मन है मेरा अभिशाप, तन और धन का भी बोध नहीं,
रीत जगत की भूल चुका हूँ, शरण तू ही है, मेरी मधुशाला।।

अलग अलग पथ बतलाये सबने, पर खाली रहा मन का प्याला,
भूला-भिसरा मैं थक-हार के, जा पंहुचा अपनी मधुशाला।
अवश्य, मदिरा के प्यालों का जी भरकर सेवन किया है मैंने,
परन्तु हर बार मेरे प्रश्नों का उत्तर देने से रही कतराती मधुशाला।।

'और पिए जा, और पिए जा', उकसाती रही मन-मोहिनी साकीबाला,
तोह फिर उसके मादक कर कमलों द्वारा क्यूँ न मैं चखता हाला?
षण भर प्यास शांत हुई जो ज्ञान हुआ परिस्थिति की विषमता का,
अब हार मानकर छुपा हुआ हूँ घूंघट में मैं तेरे मधुबाला।।

मदिरालय में कब से बैठा हूँ, सखी तोह प्यार जता कर चली गयी,
असमंजस है - 'और, और' की रटन लगाऊं या छोड़ चलूँ मैं मधुशाला।
स्वयं विवश हूँ, मंत्र-मुग्ध हूँ, अब तोह बस कर इतराना, साकीबाला,
वश में तेरे सब लुटा चुका हूँ, रहा न कुछ अब देने वाला।।

दूर खड़ी एक विचित्र मृगतृष्णा सी लगी हमेशा मुझे मधुशाला,
'आ आगे' कहकर हर बार होंठों से हटा लेती वह मेरा प्याला।
निराशा के इस घनघोर तम में वोह भूला विश्वास कैसे ढूँढू मैं,
और भी हैं पीनेवाले, उनका मनोरंजन करती है अब मेरी मधुबाला।।

समझ में आया है अब जाकर कभी नहीं था मैं पीनेवाला,
कुछ पल दोष तेरे सर मढ़कर बूझ गया मैं गलती अपनी, साकीबाला।
पर हिम्मत रही न कि बढूँ मैं आगे, न साहस है कि फिर जाऊं पीछे,
अंतिम जाम है, होंठ से अपने अंकित कर खिसका दे विष का प्याला।।

Wednesday, January 16, 2013

Ek Harqat

तुम्हारे एक इशारे पर ज़िन्दगी पर लगाम सी लगा थी हमने
ठहर गयी, थम गयी, अफ़सोस ना सूझा, हम भी रुक गए।
मोड़ पर खड़े हुए हम तुमको नए फ़ासले तय करते देखते गए;
दिल को बहलाते रहे कि साथ हमारे भी चलोगे कभी।
(उफ़! क्या नज़ारे थे। आख़िर आरज़ूएं हम में भी बेपनाह थीं।)
फ़िर लोग जो हमसे आगे निकले, उनसे ज़िक्र क्या करते?
आख़िर तुम ग़ैर भी तोह ना थे।

चाहत हमेशा रही कि चाल तुम्हारी भी थमे ज़रा, रुक जाएँ कदम
पर अलफ़ाज़ होंठ पर आते-आते दम तोड़ देते थे।
(और फ़िर तुमने भी इशारे कभी समझे थे कहाँ!)
हालत ऐसी है कि इस ठहरे पानी में सिर्फ़ आंसुओं से लहरें मचलती हैं
ख्वाहिशों के मकान भी सुनसान खंडहर बन कर डूब चुके।
तलाश है एक हरक़त की, शायद तुम पुकारो, कोई आवाज़ दो कहीं से;
आख़िर चलना मज़बूरी हमारी भी है।